सोमवार, 13 अगस्त 2012

इतिहास के पन्नों में बिल्हौर

    हिन्दी - अंग्रेजी का ऐसा कोई भी कैलेन्डर नहीं जिसकी किसी तारीख यह सुनिश्चित करती हो  फला शहर इस दिन बना। शहरों को बनने में वहां के नागरिकों की मशक्कत का विशेष योगदान होता है। शहर खेतों में फसल उगने के समान होते हैं जहां मिट्टी अधिक उपजाऊ होती हैं वहंा उपज अच्छी होती है ठीक उसी प्रकार नागरिकों को जहां अधिक सुकून मिलता है वहंा परिवारों का कारवां बढ़ता जाता है।

    बिल्हौर कस्बा भी इसी की एक बानगी है। जिसका सर्वप्रथम उल्लेख आइने अकबरी में मिलता है। ध्यान रहे आइने अकबरी किताब मुगलकाल में रची गई थी। 15वी शताब्दी में जब बिल्हौर का नाम लिखित रूप में आया उस समय कानपुर जिला नही हुआ करता था। 1530 में अकबर के समय क्षेत्र की व्यवस्था, मालगुजारी को ध्यान में रखकर वर्तमान के कानपुर क्षेत्र को 16 परगने में बांटा गया था। क्षेत्र में जमीनों का रख-रखाव सिचाई आदि की व्यवस्था, मालगुजारी आदि का निर्धारण राजा टोडमल के द्वारा किया जाता था।
    बिल्हौर के पश्चिमी छोर पर बीआरडी इन्टर कालेज परिसर से लगा हुआ एक लाल पत्थर से बना हुआ पड़ाव है यह 16 सौ ईस्वी में शेरशाह शूरी के द्वारा बनाया गया। पास ही एक कुंआ है। तहसील बिल्हौर का वर्तमान परिसर ब्रिटिशकालीन है। अंग्रेजों ने यहां सभी धर्माें की भावनाओं को ध्यान में रखते हुये मन्दिर, मस्जिद और चर्च की स्थापना करवाई थी। मौजूदा समय में पूर्व की ओर क्रमशः कोतवालेस्वर मस्जिद, मंदिर, ककवन रोड स्थित चर्चनुमा भवन है जिसमें महिला अस्पताल है। परिसर में छोटे बड़े 5 कुंआ हैं।
Bilhaur

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    1803 में कानपुर जिला घोषित किया गया। उस समय देश में अंग्रेज हुकूतम थी। तब बिल्हौर को मूलतः कागजी और जमीनी पहचान मिली। उस वक्त जिले में कुल 15 परगने जाजमऊ, बिठूर, बिल्हौर, शिवराजपुर, डेरापुर, रसूलाबाद, भोगनीपुर, सिकन्दरा, अकबरपुर, घाटमपुर, साढ़, सलेमपुर, औरैया, कन्नौज, कोड़ा और अमौली थे। इस वक्त जिले में अंग्रेज शासक लार्ड लेक था।
    बिल्हौर क्षेत्र के इतिहास में मकनपुर का विशेष स्थान रहा है। आरंभ में यहां कुल 6 मुस्लिम परिवार ही रहा करते थे लेकिन औरंगजेब की तानाशाही से कई गैर मुस्लिम परिवार भी भय के कारण मुस्लिम हो गये। यहां पर एक विशालकाय कुंआ हैं जिसकों राजा भागलमल ने बनवाया था। उक्त राजा के द्वारा यहां एक मस्जिद और किला भी बनावया गया। जिसके अवशेष आज भी मौजूद हैं। स्वतंत्रता संग्राम में भी मकनपुर का अहम् योगदान रहा। साधू-सन्यासी आन्दोलन के लिये भी मकनपुर प्रसिद्ध है। बद्दउद्दीन जिन्दा शाह मदार की मजार भी आदि कालीन है। यहां की कई कब्रगाह 300 से 800 साल पुरानी हैं।
    मकनपुर से लगा हुआ देवहा गांव भी अंग्रेजी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। गांव का पठार अत्यन्त पुराना है। मान्यता है कि 13-14 वी शताब्दी में ईशन नदी में बाढ़ आने पर यहां विशालकाय भवन का निर्माण करवाया गया था।
    खरपतपुर झाल के पास बनी इमारत भी सौ साल से अधिक पुरानी है। यहां अंग्रेज शासक रुका करते थे। यहीं से खेतों में पानी पहॅुचाने के लिये फरमान जारी होता था तथा लगान वसूली जाती थी। यही कारण है इसके आसपास के कई गांवांे में स्वतंत्रता सेनानिओं की संख्या जिले में सर्वाधिक रही है।
    बिल्हौर में अरौल आंकिन, सैबसू का भी अहम् स्थान रहा है। अरौल में आंकिन में मिश्रा लोगों का वंश पूरे भारत में विशेष है। साथ ही आंकिन घाट का धार्मिक, आजादी की लड़ाई में योगदान भी रहा है। सैबसू का घराना जमीदारी परम्परा का अनूठा उदाहरण है। जमीदारी परम्परा के उदाहरण कमसान, बैरी शिवराजपुर, उट्ठा आदि जगह भी मिलते हैं।
    अरौल में 1940 में एक गुप्त ढंग से क्रान्तिकारियों का कैम्प लगाया था। जिसमें गोरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया था। इस प्रशिक्षण का संचालन ब्रम्ह दत्त भरद्वाज और महाकाधारे लाल द्वारा दिया गया।
Rahul Tripathi
Mo- 9305029350

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